
हम मरने की चिंता करते हैं, जीने की नहीं
हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं थी। बुध्द, महावीर, शंकर नागार्जुन पतंजलि तथा अनेक जंगल की दिशा...
हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं थी। बुध्द, महावीर, शंकर नागार्जुन पतंजलि तथा अनेक जंगल की दिशा को चुना। इन लोगों ने संसार को ही सीधे अस्वीकार कर दिया। प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना समाज का धर्म जरूर बन गई। समाज को पूर्ण श्रध्दा है,आस्था है। हमारी स्थिथि नृत्य में लीन उस मयूर की तरह है, जो नृत्य करते-करते यदि अपने पांव को देख ले तो लज्जा और ग्लानि से रो उठे। यही हाल देश का है। यहां न कोई आदमी प्रसन्न दिखाई पड़ता है न कोई आदमी आनंदित दिख रहा है। न कोई आदमी जीने का रस भोग रहाह । उसके पांव में न नृत्य की कोई धरकन है, न उसके हृदय में उल्लास, प्राणों में कोई मुदिता ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। हर आदमी उदास है, क्षोभ से भरा हुआ है। हर आदमी सोचता है यह सब कब खत्म हो जाए। सब खल्लास, इसीलिये वह आवागमन से मुक्ति की सोचता है। जीवन से छुट्टी चाहता है। मोक्ष का रास्ता इसलिये खोजा जा रहा है। इस प्रकार से यह मरने कासुगम रास्ता है। कोई ऐसा रास्ता कि जीते जी अधमरे हो जायें। जो जीते जी आधा मरा हुआ होता है, उसे हम संन्यासी कहते हैं।
जो समाज जितना मरने लगता है, वह बूढ़ों का सम्मान करेगा। जो समाज, जो देश, जितना जीवित होगा, वह युवकों का सम्मान करेगा। हम जीवन विरोधी हैं, क्योंकि हम मोक्ष के लिए आतुर है और यह सब इसलिए कि हमारे पीछे समस्यायें मुंह बायें खड़ी हैं। सिर पर भी समस्याओं का बोझ है। सामने भी वही है। हमने कोई समस्या नहीं हल को इसलिए जीवन भार हो गया। जी ऊब गया। कहां जायें, इसलिये मोक्ष चाहिए। जब कोई समाज मौत का ज्यादा चिन्तन करता है, तब मतलब साफ है कि यह समाज आत्महत्या की दिशा में है। समाज बीमार है। जीते जी तो कम से कम जीवन की चिन्ता करनी चाहिये, मरने की नहीं। मरेंगे तब मरेंगे उसके पहले क्यों कर जायें।