
सत्य से होती धर्म की उत्पत्ति
धर्म के तीन स्कन्ध या विभाग या आधार स्तंभ है। यज्ञ, अध्ययन या स्वाध्याय और दान-यह पहला स्कन्ध है।...
धर्म के तीन स्कन्ध या विभाग या आधार स्तंभ है। यज्ञ, अध्ययन या स्वाध्याय और दान-यह पहला स्कन्ध है। तप ही दूसरा स्कन्ध है। आचार्य कुल में रहने वाला ब्रह्मचारी, जो आचार्य कुल में अपने शरीर को अत्यंत क्षीण कर लेता हैं, यह तीसरा स्कन्ध है। ये सभी पुण्य लोक के भागी होते हैं। ब्रह्म में सम्यक् प्रकार से स्थित (चतुर्थश्रमी संन्यासी) अमृतत्व को प्राप्त होता है।' इसी 'धर्म' शब्द के पहले 'स्व' जोड़ने से 'स्वधर्म' शब्द बनता है, जिसका अर्थ 'अपना वर्णाश्रम-धर्म' होता है। उसी के पूर्व 'पर' जोड़ने से 'पर धर्म' शब्द बनता है। उससे तात्पर्य अपने वर्णाश्रम-धर्म को छोड़कर दूसरे पुरुष के वर्णाश्रम-धर्म से है। उसी के पहले 'वि' उपसर्ग लगाने से 'विधर्म' शब्द बनता है। उसका अर्थ 'विगत:' 'धर्मेण विधर्म:' होता है। जो अपने धर्म से गिर जाए अर्थात् जो धर्मांतरित हो जाए, वह विधर्म है। श्रुति-स्मृति में कहे हुए धर्मों को छोड़कर सब धर्म विधर्म है। अत: अपने धर्म को छोड़कर अन्य धर्म को स्वीकार करने वाला 'विधर्मी' कहा जाता है। उसी के पहले 'कु' उपसर्ग लगाने से 'कुधर्म' बनता है। उसका अर्थ 'कुत्सित धर्म: कुधर्म' अर्थात् जो धर्म निंदा के योग्य हो, वह कुधर्म है। कुधर्म पापाचरण या बुरे आचरण को कहते हैं। 'कुधर्म' शब्द का एक अर्थ और भी होता है, वह यह कि जो धर्म अन्य धर्म में बाधा दे, वह 'कुधर्म' कहा जाता है। यथा-
अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मः कुधर्म तत्।
'जो धर्म दूसरे धर्म को बाधा दे, वह धर्म नहीं है, किन्तु 'कुधर्म' है। जो धर्म समस्त धर्मों का अविरोधी है, वही यथार्थ धर्म है।' धर्म के पहले 'नञ्' जोड़ने से 'न धर्म: अधर्म:' अधर्म शब्द बनता है। उसका अर्थ जो धर्म से बिल्कुल विपरीत हो, वह अधर्म कहलाता है। इस अधर्म के पांच भेद हैं- विधर्म 1. परधर्म 2. धर्माभास 3. उपधर्म 4 और छलधर्म 5, इनमें से विधर्म 1 परधर्म 2, धर्माभास 3, उपधर्म 4 और छलधर्म 5, इनमें से विधर्म 1 और परधर्म 2 के अर्थ तो ऊपर लिखे जा चुके हैं। पाखण्डाचार या दम्भ अर्थात् ढोंग को उपधर्म कहते हैं। अपने ही मन से किसी काम को धर्म कहकर करना 'धर्माभास' है। प्रचलित अर्थ को छोड़कर दूसरे प्रकार का अर्थ करके जिस धर्म की व्याख्या की जाए, वह छल-धर्म है। ऊपर कुधर्म का भी अर्थ लिखा जा चुका है। इन छहों प्रकार के अधर्मों का परित्याग करना धर्म है। अपना स्वधर्म ही सबको शांतिदायक होता है। भगवान् ने कहा है-
स्वधर्म निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह:।
स्वधर्म में मरना श्रेष्ठ है, परधर्म भयंकारी है। समस्त प्राणियों का वही परम धर्म है, जिससे भगवान में निष्काम, अटल और अचल भक्ति हो और जिसके करने से आत्मा प्रसन्न होती हो।