
वीआईपी संस्कृति को जड़ से खत्म करने की जरुरत
| | 2015-09-23T11:15:34+05:30
सदियों से गुलामी की मार झेलने के बाद 1947 में जब अंग्रेज यहां से चले गये तो हमें बताया गया कि अब हम...
सदियों से गुलामी की मार झेलने के बाद 1947 में जब अंग्रेज यहां से चले गये तो हमें बताया गया कि अब हम आजाद हैं यानी अब हमारे ऊपर किसी का हुकुमत नहीं है तथा न ही अब कोई राजा है और न कोई रंक। साथ ही अब हम इस देश के मालिक हो गये और अब यहां हमारी हुकूमत होगी। हम अपना भविष्य अब खुद ही लिखेंगे।
कुछ हद तक ऐसा सच होता भी दिखा। जब सफेद कुर्ता पहने बड़े-बड़े लोग हमारी बस्ती में आकर हमसे अपना वोट देने की विनती करते हुए दिखने लगे। हमें हर तरह के मदद की आश्वासन देते तथा हमें यह जताने की कोशिश करते कि वह हमारे सभी सुख-दुख में हमेशा हमारे साथ खड़े रहेंगे।
यहां तक तो बात ठीक थी परन्तु लोकतंत्र के प्रति हमारी जागरूकता की कमी ने धीरे-धीरे हमें फिर से वही प्रजा बना दिया परन्तु प्रजा तो तब होती है जब कोई राजा भी हो। यहां तो राजा भी हम ही हैं तो फिर प्रजा कैसी?
जब इस देश के मालिक हम हैं यानी यह आम जनता है तो फिर कोई हमसे अधिक विशिष्ट व्यक्ति कहां से हो गये। हम इस देश के मालिक होने के बावजूद अपने हर काम के लिये लाइन में खड़े होते हैं और सारे नियमों का पूरा-पूरा पालन करते हैं परन्तु वही हमारे ये सेवक यानी नौकर लोग खुद हमारी सेवा करने के बजाय हमें सिर्फ तकलीफ पहुंचान में अपनी खुशी महसूस करते हैं।
यह कैसा देश और कैसा कानून हैं, जहां मालिक से ज्यादा महत्व उनके नौकरों को खाने को सूखी रोटी तक नसीब नहीं होती और सेवक लोग काजू व मलाई खा रहे हैं। यहां हम मेहनत करते हैं तो भूखे सोते हैं और वहीं हमारे सेवक लोग हमारी मेहनत की कमाई पर आराम से ऐश कर रहे हैं।
वाअदब होशियार
हम अपने किसी काम के लिये पूरा दिन लाइन में खड़े-खड़े बिता देते हैं, फिर भी हमारा नम्बर नहीं आता तो हम अगले दिन फिर से उसी काम के लिये लाइन में जाकर खड़े होते हैं परन्तु वहीं जब कोई नेता या अफसर लोगों को कोई काम पड़ता है तो उसे किसी लाइन में खड़े होने की जरूरत नहीं होती है। उसके लिये अलग से एक रास्ता बनाकर रखा जाता है जिसे वीआईपी रास्ता कहते हैं। अगर हमें कभी स्टेशन पहुंचने में थोड़ी सी भी देरी हो जाती है तो हमारी ट्रेन हमें छोड़कर चली जाती है परन्तु अगर किसी नेता या अफसर यानी वीआईपी को उस ट्रेन से कहीं जाना होता है तो सबसे पहले पूरे स्टेशन परिसर को सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया जाता है। साथ ही उस ट्रेन को तब तक स्टेशन पर रोक कर रखा जाता है जब तक वे वीआईपी उसमें आराम से बैठ नहीं जाते और सके चमचे लोगों का उसके साथ मिलना-जुलना पूरा नहीं हो जाता है परन्तु वहीं एक आम आदमी तो किसी भी तरह खड़े होकर या लटककर भी अपनी मंजिल तक पहुंच जाये तो गनीमत होती है।
इसी प्रकार अगर हम बड़े-बड़े हॉस्पिटल की बात करें तो उनकी हालात और भी खराब है। जो कभी आम लोगों के इलाज के उद्देश्य से बनाए गए थे अब वे हमारे विभिन्न अपराधों के तहत जेल में बंद हमारे नेताओं का नया आशियाना बनकर रह गये हैं। अब यहां ये नेता लोग बीमारी का झूठा बहाना बनाकर आसानी से आ जाते हैं और वहीं अपने समर्थकों के साथ में अपना दरबार लगाते हैं तथा मोबाइल फोन का पूरा इस्तेमाल करते हैं जो जेल के अन्दर रहकर कर पाना संभव नहीं हो पाता है जबकि एक आम आदमी को इस वजह से कितनी तकलीफ झेलनी पड़ती है, इस बात का उन्हें कोई अन्दाजा भी नहीं होता है वहीं जब कोई आम इंसान इलाज के लिये वहां जाता है तो उसका इलाज करने के बजाय उसे सिर्फ बेवजह परेशान या जाता है। उसका न तो सही से इलाज किया जाता है और न ही दवाइयां दी जाती है। हाल में झारखंड हाईकोर्ट द्वारा इस मुद्दे पर की गयी टिप्पणी इस बात का ताजा गवाह है जो हमारे लिये कम दुखद नहीं है।
आजादी की अगली लड़ाई
वैसे अक्सर इन नेताओं की वजह से आम जनता को हुई परेशानियों की बात जब मीडिया में आने लगती है तो ये माफी मांगने जैसा नाटक करना शुरू कर देते हैं। साथ ही कभी-कभी यह भी कहते हुए सुनाई देते हैं कि उन्हें यह मालूम ही नहीं था कि उनकी करतूत से किसी आम लोगों को तकलीफ भी हुई है परन्तु उनके सिर्फ माफी मांग लेने से उन आम व निर्दोष लोगों को उनकी वजह से मिली क्षति की क्या भरपाई संभव है?
अगर नहीं तो देश के आम लोगों को तकलीफ पहुंचाने के जुर्म में उनके लिये कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान क्यों न हो? आज हमारी आजादी के 68 साल हो गये हैं जो एक आम इंसान की औसत आयु के बराबर होती है परन्तु आज भी हमारे देश की आम जनता हर जगह अपने सेवकों यानी नेताओं व अफसरों की वजह से दुख व तकलीफ झेलने को विवश है।
आज हमारी व्यवस्था इतनी हद तक बिगड़ चुकी है कि हमारे ये सेवक, अब सेवक नहीं होकर हमारे शोषक हो कर रह गये हैं जबकि हम इस देश के मालिक होकर भी एक रैयत बनकर रह गये हैं। हम सिर्फ कहने को देश के मालिक हैं पर हमारी स्थिति तो रैयतों जैसी भी नहीं है।
आज इन नेताओं व अफसरों के साथ-साथ हम खुद भी यह भूलते जा रहे हैं कि हम इस देश का सिर्फ रैयत न होकर असली मालिक भी हम ही हैं। हमारे ये मुट्ठीभर सेवक लोग वीआईपी का ताज पहनकर हमारा ही शोषण कर रहे हैं और हम मालिक होकर भी एक लाचार प्रजा की जिन्दगी जीने को मजबूर हो गये हैं। आज जरूरत है इस कैंसर जैसी बीमारी की तरह हमारी सोच में पल रही इस वीआईपी संस्कृति की जड़ खत्म करने की। हमें वीआईपी का नकली ताज पहने हुए हमारे इन नेताओं, अफसरों व बिचौलियों की दासता से हर हाल में मुक्ति पानी ही होगी। अब वह समय आ गया है जब हमें अपनी आजादी की अगली लड़ाई के लिये खुद को तैयार करना होगा अन्यथा ये नेता या अफसर खुद को हमारा सेवक समझने के बजाय सत्ता को अपने पुरखों की जागीर समझते रहेंगे।