
मानव जीवन में संयम अनिवार्य
| | 2016-03-27T15:07:28+05:30
मनुष्य दोहरी प्रकृति का प्राणी है। एक पशु प्रवृत्ति हैं जो अपनी सहज प्रवृत्तियों, आवेगों, इच्छाओं...
मनुष्य दोहरी प्रकृति का प्राणी है। एक पशु प्रवृत्ति हैं जो अपनी सहज प्रवृत्तियों, आवेगों, इच्छाओं एवं स्वचालित प्रेरणाओं के अनुसार जीवन-यापन करती है, दूसरी एक अति जागरूक बौध्दिक नैतिक, सौन्दर्यात्मक, विवेकपूर्ण और गतिशील प्रकृति है। एक ओर ऐसा चिंतन-मनन है जो निम्न प्रकृति का परिशोधन चाहता है तो दूसरी ओर ऐसा संकल्प है जो देवत्व को जीवन में उतारने के लिए हुलसाता है। अच्छे-बुरे चिंतन और कर्म का परिणाम पाना अपने पर निर्भर करता है। व्यक्ति अनुपयुक्त विचारों को छोड़कर तथा विवेक और संयमशीलता को अपनाकर अपनी गतिविधियों में उत्कृष्टता का समावेश कर सकता है।
ईश्वर का राजकुमार मनुष्य ही है, पर वह उस पिता को भूला हुआ है। मानव शरीर प्राप्त करने के लिए जो देवता भी लालायित रहते हैं। समस्त भारतीय साहित्य में 'अंतरात्मा को ब्रह्म' कहकर इसके महत्व को प्रतिपादित किया है। दुर्भाग्यवश मनुष्य इसबात को भूल ही गया है। जीवन ही प्रत्यक्ष देवता है। इसकी ही सेवा उपासना सुसंस्कृत और सुदृढ़ बनाकर इसी जीवन में करनी चाहिए।
आज व्यक्ति ने असंयमित जीवन अपनाकर अपना सब कुछ खो दिया है। मनुष्य ने नासमझी में सदैव अपनी मानसिक, शारीरिक शक्तियां एवं संपदाओं का अनावश्यक रूप से अपव्यय किया है। यदि व्यक्ति चाहे तो संयम अपनाकर परमात्मा के राजकुमार जैसा जीवन जी सकता है।
धूप, दीप, अर्थात् तथा रोली से देवता प्रसन्न नहीं होते, अपितु जीवन देवता की उपासना के लिए धर्म धारणा को आवश्यकता होती है। धर्म की चर्चा सभी करते हैं पर उसे धारण कोई-कोई ही करता है। धर्म को जो धारण करता है धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है।