
मां का प्यार निरंतर है
| | 2015-12-29T10:50:55+05:30
'मां' कितना मीठा शब्द है। मधुरता का अहसास है, अंधेरी रात में रोशनी की मीनार है। मां की मोहब्बत फूल...
'मां' कितना मीठा शब्द है। मधुरता का अहसास है, अंधेरी रात में रोशनी की मीनार है। मां की मोहब्बत फूल से ज्यादा तरोताजा और खूबसूरत है। महान व्यक्तियों की कामयाबी का राज मां की दुआ है। इंसानियत की सच्ची तस्वीर है मां! बच्चा सर्वप्रथम मां से ही प्यार का सबक सीखता है। मां का प्यार उसे सुरक्षा प्रदान करता है। विश्वास आस्था जगाता है। विवाह पूर्व तक बच्चों की दुनिया मां के इर्द-गिर्द ही रहती हैं। हर समस्या, बीमारी, निराशा, दु:ख तकलीफ में मां का साथ उन्हें सांत्वना देता है। मां स्वयं, दु:ख तकलीफ उठाकर भी बच्चों पर आंच नहीं आने देती। उसके त्यागों की कोई गिनती नहीं होती।
हमारे शास्त्र-पुराणों में मां की महिमा का बखान अकारण ही नहीं है। मां के चरणों में स्वर्ग है। इसमें संदेह नहीं। मां के प्यार से जो वंचित रह जाते हैं उनसे पूछे कोई कि इस अभाव के कारण उनके जीवन में कैसी रिक्तता आ जाती है। वे अपने को कितना बदनसीब समझते हैं। मां की महत्ता समझना आज की पीढ़ी के लिए और भी जरूरी है। नैतिक अवमूल्यन के इस दौर में जब नई पीढ़ी दिशाहीन होकर भटक रही है, मां का प्यार ही उसे सही राह दिखा सकता है। मां का प्यार ही मानवीय प्यार का सच्चा उदाहरण है और यही आपका नैतिक आदर्श होना चाहिए।
आप चाहे कितने ही पापी, गुनहगार क्यों न हों, मां आपसे कभी मुंह नहीं मोड़ेगी। वह सदा आपकी मंगलकामना करेगी। आपके लिये आंसू बहायेगी, हर एक से उलझ पड़ेगी, ढांढ़स बंधाएगी, प्रेरणा देगी। आपकी निंदा वह कभी नहीं सुनेगी, चाहे दुनियाभर से उसे दुश्मनी क्यों न लेनी पड़े। वह सदा आपके साथ है। वह आपका स्ट्रेंथ, आपका मनोबल है। मां का प्यार निरंतर है, अपरिवर्तनशील है चाहे दु:ख हो या सुख कैसी भी परिस्थिति आये। यह कभी कम नहीं होगा, कभी खत्म नहीं होगा। समय और दूरी का इस पर असर नहीं होता, अयोग्यता तथा कृतघ्नता के कारण भी कमजोर नहीं पड़ता। बेटा उसके प्रतिर् कत्तव्य निभाये न निभाये, यह प्यार तो स्वार्थरहित बेगरज ही रहेगा।
तब क्या संतान को नहीं चाहिये कि ऐसी अमूल्य निधि की वह कद्र करें। उसके महत्व को समझे हर दिन को वो 'मदर्स डे' मानकर चले। मां का सम्मान करे उसे खून के आंसू न रुलायें, क्योंकि अपने जो चोट देते हैं, वह बहुत गहरी होती है। मां को बुढ़ापे में आराम देना, उसे प्रसन्न रखना हर पुत्र का प्रथमर् कत्तव्य है। बेशक अपनी सीमाओं के साथ ही। विवाहोपरांत उसकी जवाबदेही बंट जाती है। जब उसका अपना परिवार होता है। वह माता-पिता के साथ रहे, न रहे यह आपसी तालमेल पर निर्भर है। इसके लिए उस पर कोई बंधन नहीं, बुराई अलग रहने में नहीं, बल्कि मनमुटाव दिलों की दूरी अलगाव में हैं।
एक उम्र के बाद जब आपका व्यक्तित्व होता है, आपकी अपनी जिन्दगी होती है। मां की हर आज्ञा पालन के लिए आप बाधित नहीं रह जाते, क्योंकि आपकी अपनी सोच है, आपकी अपनी आत्मा की आवाज है। मां हर बात में सही हो यह जरूरी तो नहीं, वह भी गलत हो सकती है।