
भारतीय गुप्तचर एजेंसी 'रॉ' के रोचक प्रसंग
बी. रमण जो देश की सर्वोच्च सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसी के ढांचे से 26 वर्षों तक जुड़े रहने के कारण...
बी. रमण जो देश की सर्वोच्च सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसी के ढांचे से 26 वर्षों तक जुड़े रहने के कारण अनेक महत्वपूर्ण घटनाक्रमों के विश्वस्त साक्षी रहे हैं व रॉ, जिसके आद्याक्षरों का पूरा रूप रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग है, उसकी महत्वपूर्ण गतिविधियों के बारे में अधिकारपूर्वक लिखना जानते हैं। देश के सीमान्तों से लगे क्षेत्र और विदेशी गुप्तचरी के लिए उत्तरदायी यह संगठन उतना ही प्रभावी था जितना दुस्साहसी भी। विदेश नीति के बदले परिप्रेक्ष्य में यह खुफिया एजेन्सी भी काफी बदल चुकी है और कुछ निष्क्रिय भी। श्री रमण खुद महसूस करते हैं कि जब से रॉ का ऐतिहासिक विभाग बन्द कर दिया गया है इसकी गुप्त गतिविधियों के पुराने दस्तावेजों से भी इस पीढ़ी को वंचित कर दिया गया है, विशेष कर उस समय जब यह हमारी वैदेशिक नीति को कार्यान्वयन के समय भी अपने आंख-कान खुले रख सकती थी।
दशकों पहले इस एजेंसी के प्रमुख थे रामनाथ काओ, जिन्हें गुप्तचर गतिविधियों को संगठित करने के लिए दन्तकथाओं का एक प्रमुख पात्र बनने का सौभाग्य मिला था। जैसा हमारे देश में बहुधा होता है श्री रमण के समीक्षित ग्रंथ के प्रकाशन के तुरंत बाद ही विवाद उठा जब उन्होंने लिखा कि एक समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जम्मू में आतंकवाद से लड़ने के लिए सरकार द्वारा हथियारों के प्रशिक्षण की पेशकश की गई थी। इस बात में सच्चाई हो या न हो, पर इसके कोई मतलब लगाए गए। इसी तरह रामनाथ काओ के रूप में एक ऐसे व्यक्तित्व की चर्चा भी है जिसकी कहानी एक उपन्यास जैसी रोचक है। हमारे देश में परदे के पीछे की महत्वपूर्ण घटनाओं के निर्णायक के बारे में इसके पहले कुछ नहीं लिखा गया था। श्री रमण का प्रस्तुत ग्रंथ इस अल्पज्ञात अध्याय को पाठकों के समक्ष आधिकारिक रूप से प्रस्तुत करता है।
साठ के दशक में चीनी आक्रमण के समय सेना के लेफ्टीनेंट जनरल बी.एम. कौल और उनके इर्द-गिर्द घूमने वाले जनरलों की बहुत चर्चा भी। वह नेहरू-मेनन का जमाना था और सेना मुख्यालय में नेहरूजी के वरद्हस्त के बल पर जनरल कौल को पिछले दरवाजे से चीफ आफ जनरल स्टॉफ बना दिया गया था। जनरल कौल के सहयोगियों को उस समय नौकरशाही के उच्चस्तरों पर कौल ब्वायज की संज्ञा दी गई थी।
1962 में चीनी आक्रमण के दौरान भारत की अपमानजनक हार के बाद वे सबके सब अपनी अक्षमता के लिए बदनाम हुए थे। यहां तक कि हार के कारणों पर अपने आधिकारिक ग्रंथ में हेन्डरसन-ब्रूक्स ने स्पष्ट लिखा कि 1960 के प्रारंभ से ही व्यावसायिक और दूरगामी रणनीतिक दृष्टि का अभाव हमारे सैन्य बलों में असन्तुलन, अविश्वास और असुरक्षा फैला चुकी थी और नेतृत्व का अभाव देश के परराष्ट्रीय खुफिया ढांचों में भी व्याप्त था। जहां सेना के बी.एम. कौल व उसके सैनिक सहयोगी अपने दम्भ प्रदर्शन, शान और बड़बौलेपन से ग्रस्त थे वहीं देश में कुछ वर्षों बाद ही रामनाथ काओ के रूप में एक ऐसा अधिकारी हुआ जो कुशल, शान्त, स्वप्रचार से कोसों दूर गुमनामी में रहकर ऐसा कार्य कर सका जिस पर विस्मय भी होता है। रामनाथ काओ की व्यावसायिक दक्षता एवं प्रतिबध्दता एक उदाहरण बन गई थी।
श्री रमण का यह ग्रंथ किसी गुप्तचर सेवा के वरिष्ठ अधिकारी दास लिखा पहला ग्रंथ नहीं है। इसके पहले बी.एन. मलिक, जो इन्टेलीजेन्स ब्यूरो में 16 वर्षों तक निदेशक रह चुके थे, तीन खण्डों में अपने संस्मरण 'माई इयर्स विद् नेहरू' शीर्षक से प्रकाशित कर चुके थे। पर यह आई.बी. के दो पृथक भागों में विभाजन के पहले की बात थी एक अन्दरूनी गुप्तचरी के लिए जिसे आई.बी. कहते थे दूसरी वैदेशिक गुप्तचरी के लिए जिसे 'रॉ' कहा गया।
लेखक की इस कृति में पहली बार हमारी परराष्ट्र गुप्तचर सेवा के गोपनीय रखे कार्यों, उनकी सफलता व असफलताओं पर प्रकाश डाला गया है। जब से सितम्बर 1968 में रॉ की स्थापना हुई और जब श्री रमन अगस्त 1994 में सेवानिवृत्त हुए तब तक की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं को इसमें एक पैनी दृष्टि से लिपिबध्द किया गया है।
अमेरिका की कुटिलता
सच देखा जाए तो किसी खुफिया संगठन के बारे में तटस्थ होकर लिखना मुश्किल काम है। क्योंकि यह उससे घनिष्ठ रूप से जुड़े अधिकारी द्वारा लिखा वृत्तान्त है जिसमें रॉ की 1960 के दशक के उत्तरार्ध्द से लेकर 1990 के मध्य तक की भूमिका की चर्चा है इसमें कई प्रधानमंत्रियों के रुझानों के बारे में भी आवश्यक रूप से चर्चा है। काओ भारतीय पुलिस सेवा के 1940 के बैच के अधिकारी थे और उन्हें इन्टेलीजेंस ब्यूरो का 20 साल का अनुभव था, जब 'रॉ' की स्थापना 1960 में हुई थी तभी से इन्दिरा गांधी ने उन्हें इसके लिए चुना था। पेरिस और जिनेवा के अलावा 'रॉ' के दिल्ली मुख्यालय में रहे थे। बी. रमण उनके दाहिने हाथ थे और इस ग्रंथ का शीर्षक भी उन्होंने अपने प्रमुख आर.एन. काओ के नाम पर रखा।
रमण के लेखन की यह विशेषता है कि वे अपनी निजी या संगठन की त्रुटियों और असफलताओं को भी स्वीकारते हैं। जब 1969 में उत्तर पूर्व में नागा विद्रोह एक गंभीर खतरा था तब एक बार इन्टेलीजेन्स ब्यूरो और 'रॉ' ने उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर आकलन किया था कि 2100 नागा छिपकर युन्नान गए थे जहां चीनी उन्हें प्रशिक्षण देते थे। उस समय सेना के कमाण्डर सैम मानेकशा ने इस प्रश्न पर संशय प्रकट किया और इसे मात्र 450 कहा। लेखक के अनुसार बाद में हिरासत में लिए एक नागा नेता से जब यही संख्या बताई तब उन्होंने अपनी गलती सुधार कर जनरल का अनुमोदन किया।
लेखक यह भी मानता है कि बाबरी मस्जिद के ध्वसं के बाद मुम्बई में हुई बम विस्फोटों की श्रृंखला का वे पूर्वानुमान नहीं लगा सके थे और खुफिया तंत्र की यह बड़ी असफलता थी। इस ग्रंथ में प्रारंभिक पूर्वपीठिका से लेकर आखिरी अध्याय तक एक मुद्दा बार-बार आया है वह अमेरिका का भारत की सुरक्षा के खतरों में सहयोग न देना। इसमें कुछ नई बात नहीं थी पर लेखक ने अनेक तथ्यपरक उदाहरण दिए हैं जहां अमेरिका भारत के पक्ष को अनदेखा कर पाकिस्तान का पक्ष लेता था। जब लेखक 1994 में सेवानिवृत्त होकर अपने घर चेन्नई पहुंचे तब अमेरिका के प्रति अपनी कड़वाहट व आक्रोश को दबा न सका। रॉ के समकक्ष की अमेरिकी एजेंसी सी.आई.ए. से वह इतना रुष्ट नहीं थे जितने स्टेट डिपार्टेमेंट के भारत-विरोधी रवैये से थे। उन्होंने अनेक उदाहरण दिए हैं जब अमेरिका ने खालिस्तानी लॉबियों को सहायता दी, जम्मू-कश्मीर में पृथकतावादी तत्वों को बढ़ावा दिया और पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी आई.एस.आई. को भी भारत के विरुध्द उकसाया। आतंकवाद का असली अर्थ अमेरिका तब समझा जब 11 सितम्बर 2001 को विश्वव्यापार केन्द्र की अट्टालिकाओं को ध्वंस हुआ। अन्यथा आतंकवाद के भारतीय शिकारों से उसे कोई मतलब नहीं था। यह दुर्भाग्य की बात है कि पश्चिम की आंखें खोलने और भारत की आतंकवाद से जूझने की व्यथा उन्हें तभी समझ में आई जब कनाडा के अपने नागरिक कनिष्क वायुयान के विध्वंस में मारे गए थे।
एक समय वह भी आया जब अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने भारत के साथ सहयोग की पहल की। वे भारत की सहायता साम्यवादी चीन की विस्तारवादी नीतियों से लड़ने में चाहते थे। चीन के विरुध्द जासूसी करने में सी.आई.ए. ने भारत को विशेष इलेक्ट्रानिक उपकरण भी दिए थे। उस समय अमेरिकी गुप्तचर एजेन्सी के निदेशक ने रामनाथ काओ से कहा था- रामजी, हम इस क्षेत्र में एक दूसरे को धोखा देने से नहीं चूकते हैं। मैं जानता हूं कि रॉ भी हमें धोखा देगा और दिए हुए साज-सामान से चीन की बजाय पाकिस्तान से तकनीकी गुप्त सूचनायें पाने में उपयोग में लाएगा। पर ध्यान रखना स्टेट डिपार्टमेंट को इसकी आहट भी न हो!
यह भी एक विरोधाभास था कि जहां अमेरिकी गुप्तचर एजेन्सी निक्सन के समय इन्दिरा गांधी के विरुध्द आक्रोश दिखाकर युध्द स्तर पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की नीति अपना रही थी दूसरी ओर भारतीय गुप्तचरों व रॉ को चीन के विरुध्द हर सहायता सहर्ष दे रही थी।
चीन संबंधी कमजोरी
लेखक के पैने विश्लेषण में 'रॉ' के प्रमुखों के विभिन्न प्रधानमंत्रियों से कैसे संबंध थी इसकी भी चर्चा है। इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और चन्द्रशेखर से 'रॉ' के संबंध बहुत अच्छे थे। मोरारजी देसाई उनके काम की कम आवंटित बजट में कटौती की अधिक बात करते थे। लेखक पेरिस में हुई एक मीटिंग का उल्लेख करता है जिसमें एक बड़े शानदार भोज में मोरारजी देसाई मेवे के कुछ दाने ही खाकर संतुष्ट दीख रहे थे।
लेखक ने यह भी स्वीकार किया है कि दशकों तक रॉ की सबसे बड़ी कमजोरी चीन के बारे में सूचना-संग्रहण व उनके आकलन और विश्लेषण को महत्व न देना। यह पहले भी था और आज भी है। इसके भयावह परिणाम हम पहले भी भुगत चुके हैं तथा फिर संकट में पड़ सकते हैं। यहां तक कि अमेरिकी और ब्रिटिश एजेन्सियों के सचेत करने पर भी हम अपनी ही दूनियां में रहे और अपनी थोथी आदर्शवादी दृष्टि के सामने भूराजनीति के समीकरणों को महत्व न दे पाए। हमारी गुप्तचर एजेन्सी पाकिस्तान, मध्य एशिया व अरब देशों के विशेषज्ञ बना सकी पर चीन के लिए ऐसा कोई प्रतिबध्द समूह न तैयार कर सकी। 1962 के चीनी हमले के अपमान को भुगतने के बाद भी हम पर्याप्त शिक्षा ग्रहण न कर सके। रॉ के लगभग 40 वर्षों के इतिहास में मात्र एक बार इसका प्रमुख चीनी विशेषज्ञ कहा जा सकता था। इसका एक कारण यह था कि हमारी एजेन्सियां सिर्फ पाकिस्तान को ही शत्रु मानती थीं। हर स्तर पर साम्यवादियों के अनपेक्षित दबदबे के कारण चीन को नहीं। लेखक ने आशा प्रकट की है कि दृष्टिकोण के इस असंतुलन को दूर किया जाएगा।
सारे ग्रंथ में रोचक अल्पज्ञात ऐतिहासिक तथ्यों से भरी काफी चटपटी बाते हैं। यह भारत की विदेशी क्षेत्र में कार्यरत खुफिया एजेन्सी की अब तक सर्वोत्तम पाठ्यपुस्तक का दर्जा पा सकती है। लेखक खुद अनुभव करता है कि हम भारतीयों की स्मृति काफी क्षीण है और हम पुराने घटनाक्रमों से अनपेक्षित शिक्षा नहीं ग्रहण करते हैं जो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
पाकिस्तान के आधिपत्य से बांग्लादेश को मुक्ति दिलाने की योजना को कार्यान्वित कराने वाले का वर्षों तक मीडिया में जिक्र ही नही था। विजय श्री के क्षण में 'रॉ' की चर्चा अवश्य हुई पर वे अपना चित्र भी प्रकाशित करवाने का कभी राजी नहीं हुए। लेखक ने 1996 की एक घटना का वर्णन किया है। बांग्लादेश की मुक्ति की पच्चीसवीं वर्षगांठ दिल्ली में धूमधाम से मनाई जा रही थी। नेताओं के भाषणों से सभागृह में अत्यन्त उत्साह था। तभी एक बांग्लादेशी अतिथि ने पीछे की कुर्सियों पर एक लंबे, खूबसूरत, और भद्र दीखने वाले व्यक्ति को देखा और उसके पास आ कर बोला, 'सर! आपका स्थान तो मंच पर प्रमुख आसन पर बैठने का है। आप ही ने 1971 में जो हुआ उसे सम्भव किया!' काओ ने जवाब दिया- 'मैंने कुछ नहीं किया, मेरे सहयोगियों को ही आज प्रशंसा पाने का अधिकार है।' वे चुपचाप भीड़ में गुमनामी में बैठना पसन्द करते थे।
देश में हमारे खुफिया तंत्र की स्थिति भलीभांति समझने के लिए यह ग्रंथ एक प्रामाणिक कुंजी सिध्द होगा और इसकी पठनीयता ने इसमें चार चांद लगा दिये हैं। इस कृति में हम समय की वास्तविक घटनाओं को ही नहीं प्रत्युत उनकी कालावधि के साथ समग्र प्रभाव को भी स्पष्ट देखते हैं। इस कारण से यह ग्रंथ संग्रहणीय भी है।
द काओेब्बायज आफ रॉ : डाउन मेमोरी लेन, लेखक- बी. रमण, प्रकाशक- लान्सर पब्लिशर्स, नई दिल्ली : पृष्ठ 290, मूल्य- रु. 795.