
पत्रकारिता यानी स्पष्ट विचारों की अभिव्यर्झीं
जब यहां चर्चा हो रही थी पत्रकारिता की, आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र के बारे में, आचार्य सत्यानंद जी के...
जब यहां चर्चा हो रही थी पत्रकारिता की, आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र के बारे में, आचार्य सत्यानंद जी के बारे में और महात्मा गांधी के बारे में, तब मेरे मन में यह विचार आ रहा था कि हम समाज में दो शब्दों का प्रयोग करते हैं। एक शब्द है समाज का विकास और दूसरा शब्द है समाज का निर्माण। दोनों का अर्थ अलग होता है।
चिंतन और चिंता
हम देखें तो समाज विकास का जो क्षेत्र है, उसको हम सरकारी तंत्र से जोड़कर देख सकते हैं क्योंकि सरकारी तंत्र का जो कार्य होता है, जनता के लिए सुविधा तथा कौशल उपलब्ध कराने का, ताकि जनता अपने सुख, समृध्दि तथा शांति के मार्ग पर चल सके। परिवार तथा समाज का उत्थान एवं कल्याण दोनों कर सके। समाज विकास का जो संबंध मेरे मन में है, हो सकता है, गलत हो, लेकिन उसका संबंध है परिवर्तन और व्यवस्था के साथ देखिए चिंतन के दो रूप होते हैं। एक सकारात्मक चिंतन, जो जीवन परिवार और समाज कल्याण के लिए होता है। एक नकारात्मक चिंतन, जो जीवन में चिंता और परेशानी का कारण बनता है। दोनों की उत्पत्ति एक ही है। चिंतन और चिंता दोनों के आकार का और नकार था। जब हम अपन प्रयासों से दूसरे का उत्थान और कल्याण करते हैं तो वह चिंता का रूप नहीं चिंतन का रूप होता है और हमारे देश के जो मनीषी रहे हैं, हमारे देश के जो अच्छे लोग हैं, वे चिंतक हैं। हम आपको एक और तरीके से समझाने का प्रयास करते हैं। चिंता और चिंतन में अंतर या भेद। एक मनुष्य यात्रा करता है, लेकिन उसके पास नक्शा नहीं है, मैप नहीं है, उसको हर पल की चिंता होती है कि मैं किस दिशा में जाऊं। जिस दिशा में जा रहा हूं, क्या वह सही दिशा में या मेरा रास्ता भटक रहा है। तो जिस व्यक्ति के पास नक्शा नहीं होता है, उसके जीवन में चिंता है। लेकिन जो व्यक्ति समाज के नक्शे को देखता है और समझता है, वह चिंतन है। यही अंतर सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच में भी है। हमारे भारत में चिंता करने वाले और चिंतन करने वाले भी लोग हैं। हम चिंतन करते हैं तो वह समाज के लिए प्रेरणा कार्य होता है। समाज को प्रेरित करते हैं। एक विचार देकर, एक लक्ष्य देकर, एक उद्देश्य प्रदान करके। आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र सामाजिक चिंतक रहे हैं। स्वामी सत्यानंदजी भी सामाजिक चिंतक रहे हैं। यदि बाह्य आवरण को देखें तो गांधी जी त्याग और महात्मा के रूप थे। स्वामी सत्यानंद सन्यासी के रूप थे और हमारे आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र सहज और सरल रूप थे। उन्हें कोई अहंकार और अभिमान नहीं था। अब रही समाज निर्माण की बात करें तो जब एक मनुष्य अपन चिंतन द्वारा अपना पथ तय करता है और वर्तमान की आवश्यकताओं के अनुसार समाज को आगे बढ़ाने का निर्माण करने का संकल्प लेता है तब उस चिंतन को समाज में प्रसारित करने के लिए जरूरत होती है पत्रकारिता की। और पत्रकारिता का अर्थ होता है स्पष्ट विचारों को व्यक्त करना, भ्रांतिपूर्ण विचारों को नहीं। भ्रांतिपूर्ण विचारों से बचते हुए आप जो कहना चाहते हैं उसे कम शब्दों या वाक्यों में कहने की जरूरत है, क्योंकि स्थान उतना ही मिलता है। इसलिए आपको अपना स्पष्ट विचार रखन होता है। इसलिए अपनी ही लेखनी पर आपको स्वयं विचार करना होता है, आप जो लिख रहे हैं, वह सही है या नहीं इस पर भी ध्यान देना होता है। हम जो सोच रहे हैं या व्यक्त कर रहे हैं वह सही हा या नहीं।
पत्रकारिता चिंतन की अभिव्यक्ति है और उस चिंतन का एक लक्ष्य रहता है। बात हो रही थी गांधी जी ने एक आंदोलन किया, उस समय लोगों में स्वराज के चिंतन में गांधी जी ने एक उत्साह लाया और पूरा समाज का एक लक्ष्य बन गया।इसलिए पत्रकारिता में भी इसकी स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है कि मनुष्य संकल्प को लेकर, विचार को लेकर आगे बढ़ रहा है। जब लक्ष्य सामने नहीं हो तो वहां विच्छेद आरंभ होता है। मनुष्य के मन का भटकाव आरंभ होता है और फिर पत्रकारिता में, संदेश के प्रसारण में उद्देश्य, नहीं दिखाई देते। यहां पर हम जिन लोगों के चिंतन की बात कर रहे हैं। गांधी जी ने अपने चिंतन में भारत के बारे में एक कल्पना की। भारतीय समाज की कल्पना की। भारतीय समाज की कल्पना की। जिस प्रकार समाज के भेदों, विचारों को उन्होंने प्रस्तुत किया, उनके विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम बना पत्रकारिता। उसी प्रकार आधुनिक परिवेश में स्वामी सत्यानंद ने चिंतन किया और चिंतन का रूप केवल आध्यात्मिक नहीं था, जब वे बार-बार कहते रहे, उदाहरण देकर गए कि अगर एक परिवार में चार बच्चे हैं, एक सक्षम है, स्फूर्त है, एक कमजोर और अपंग है, तो एक अभिभावक के नाते आप किसका अधिक ध्यान रखोगे? जो सक्षम है, मजबूत है उनका ख्याल करोगे या एक अपंग का, जो कमजोर है उसका ख्याल करोगे? हमारे भारतीय समाज में भी यही परिस्थिति रही है और हमने गलती की। हमने मजबूत, शिक्षित संतानों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया, जो अपंग था, कमजोर था, उसके लिए नहीं किया।
पत्रकारों का दायित्व
हम तो ऐसी परम्परा से जुड़े हैं जो शांति को प्राप्त करने का प्रयास नहीं करता है। इसलिए इस विचारधारा से प्रभावित होकर यह जानने के प्रयास करते हैं कि अशांति के क्या-क्या कारण हैं और इन कारणों का निवारण किस प्रकार सकारात्मक रूप में हो सकता है। इस चिंतन का प्रसारण यदि पत्रकारिता के माध्यम से हो तो हम एक अच्छे समाज की कल्पना कर सकते हैं। जैसा कि कहा गया सोशल मीडिया में पत्रकारिता प्रवेश कर रही है। ठीक है सोशल मीडिया अपना काम करे। सोशल मीडिया में छोटी सी बात को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप मिल सकता है। ऐसे में संगठित पत्रकार संघ की क्या भूमिका होनी चाहिए, क्योंकि संगठन के रूप में आप एक आंदोलन का निर्माण करते हैं। मनुष्य को भटकने से रोकें और यह शक्ति आप पत्रकारों के पास है। हम लोग सही विचार व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन उस विचार को प्रसारित करना, जन-जन तक पहुंचाना और मानने के लिए लोगों को प्रेरित करना आदि काम आप पत्रकार करते हैं और कर सकते हैं। आपको, समाज को, हमसे अपेक्षा है कि हम सांस्कृतिक, नैतिक, समाज के निर्माण का मार्ग पकड़ा सकें। जो साधु अकेले में नहीं कर सकते वह संगठन के रूप में आप कर सकते हैं। गांधी और स्वामी सत्यानंद विचारक एवं चिंतक रहे हैं, आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र चिंतक रहे हैं और सुविधा यह थी कि वे जो सोचते थे, उसको व्यक्त करने का जो माध्यम, उनके पास था वह पत्रकारिता था। हमारे सकारात्मक व्यवस्था लाने की दिशा में प्रयास निरंतर जारी रहना चाहिए।