
चंचल मन को कैसे करें स्थिर
तैलंग स्वामी (गणपति स्वामी) गुजरात के पोरबंदर स्थित सुदामापुरी में एक व्यक्ति द्वारा पहचान लिये...
तैलंग स्वामी (गणपति स्वामी) गुजरात के पोरबंदर स्थित सुदामापुरी में एक व्यक्ति द्वारा पहचान लिये गये। वह व्यक्ति रामेश्वर दर्शन करने गया था। एक व्यक्ति को जीवन दान देते हुए गणपति स्वामी को उस व्यक्ति ने स्वयं अपनी आंखों से देखा था। उस व्यक्ति ने श्रध्दा से गदगद होकर स्वामीजी के पैर पकड़ लिये और कहा- 'स्वामी जी महाराज, आप तो भगवान् हैं। रामेश्वर में मैंने आपके चमत्कार को देखा है। जब आप मुर्दे को जिला सकते हैं, तब आप क्या नहीं कर सकते। अब मैं आपको कहीं जाने नहीं दूंगा। आपकी सेवा करूंगा।'गणपति ने मन ही मन सोचा-अजीब मुसीबत में फंस गया। उन्होंने कहा- 'पर मैं योगी हूं। आज यहां, कल वहां। तुम बेकार परेशान हो होओगे।'लेकिन वह व्यक्ति किसी तरह राजी नहीं हुआ। लाचारी में स्वामीजी को उनके यहां आतिथ्य ग्रहण करना पड़ा। उक्त ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी स्वामीजी की सेवा में लगे रहे। गणपति को समझते देर नहीं लगी कि यह सेवा नि:स्वार्थ नहीं है। फल की आकांक्षा से कर रहे हैं। एक दिन भोजन के पश्चात गणपति स्वामी ने कहा- 'पंडितजी, मैं आपकी सेवा से संतुष्ट हो गया। इस सेवा के बदले तुम मुझसे क्या चाहते हो, इसे स्पष्ट रूप से बताओ? शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।'पंडित ने अवसर समझकर कहा- 'घर की हालत आप देख ही रहे हैं। हम अपनी इच्छा अनुसार आपकी सेवा नहीं कर पा रहे हैं। अपनी दशा सुधारने के लिए व्रत रखा, तीर्थ यात्रा की, पर कोई लाभ नहीं हुआ। अब आपका आशीर्वाद मिल जाए, तो शायद हमारी स्थिति सुधर जाय।'गणपति स्वामी ने कहा- 'अब तक तुमने जो कुछ किया, वह सब मन से नहीं किया। उदाहरण के लिये अपने को लो। ब्राह्मण हो, पर त्रिसंध्या नहीं करते। पूजा करने बैठते हो, तो मन कहीं दौड़ता है। ऐसी दशा में तीर्थ या व्रत रखने का फल कैसे मिलेगा? तुम्हारे शरीर में ही सारे तीर्थ हैं। इसके लिये अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं। गंगा नासापुट में, यमुना मुख में, वैकुण्ठ हृदय में, वाराणसी ललाट में, हरिद्वार नाभि में है। जिस पुरी में प्रवेश करते समय कोई संकोच और कुण्ठा बोध न हो, वही वैकुण्ठ है। पाप तो आशंका की जड़ है। जो पापी होता है, वह प्रत्येक कार्य में संकुचित होता है। निष्पाप को कहीं शंका नहीं होती। वह सर्वदा कुण्ठा शून्य होता है। वहीं वैकुण्ठपुरी जाने का अधिकारी होती है।'पंडित ने पूछा- वैकुण्ठ कहां है? गणपति स्वामी ने कहां- 'योग हृदय में इड़ा और पिंगला नाड़ी या चंद्र और सूर्य अर्थात् जहां गंगा-यमुना का संगम है। इस संगम में स्ान कर लेने पर जीव के सभी पाप ध्वंस हो जाते हैं। इड़ा आत्म-ज्ञान और पिंगला विवेक है। जिस प्रकार गंगा-यमुना का आपस में संबंध है, ठीक उसी प्रकार इड़ा-पिंगला का है। पिगला अर्थात् विवेक से इड़ा अर्थात् आत्मज्ञान की उत्पत्ति होती है। इन को इसी पिंगला के मार्ग से प्रवेश कराकर क्रमश: निवृत्ति के द्वारा इड़ा में मिलाना चाहिये। बाद में जहां इड़ा और पिंगला का संयोग हुआ है अर्थात् जिस स्थान पर आत्मज्ञान और विवेक एकत्र हुए हैं, वहां मन को ले जाकर स्ान कराने पर अर्थात् मन को आत्मज्ञान सलिल में निमज्ज्ाित करने पर महाफल प्राप्त होता है।'पंडित ने कहा- 'आपने जो बताया, इसकी सामान्य जानकारी मुझे है, परन्तु मेरा मन इतना चंचल है कि मैं इन बातों को सहज रूप में ग्रहण नहीं कर पाता। मन को स्थिर कैसे किया जा सकता है?'गणपति स्वामी ने हंसकर कहा- 'मन की वृत्तियां समुद्र की लहरों की तरह चंचल हैं। कहा गया है कि मन का तेज अग्नि से अधिक है। इसका अतिक्रमण करना, पर्वत लांघने से कठिन है। मन को वश में करने का अर्थ है सुमेरू पर्वत को उखाड़ फेंकना। मन कोई सामान्य इंद्रिय नहीं है, इसलिए गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'इंद्रियानां मनश्यास्मि' अर्थात् इंद्रियों में मन हूं। मन को अगर वश में कर लिया जाए, तो समस्त सुख-दुख पर विजय प्राप्त की जा सकती है। मन की क्रियाएं नट की तरह होती हैं। क्षण में आनंद, तो क्षण में विषाद अनुभव करता है। मन पर अधिकार कर लेने पर ब्रह्म हुआ जा सकता है। लेकिन जब तक समर्पण की भावना मन में उत्पन्न नहीं होगी, तब तक मन चंचल रहेगा।'