
क्यों बढ़ायी जाये सांसदों की सख्या?
| | 2016-01-21T10:36:13+05:30
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नए संसद भवन की आवश्यकता...
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नए संसद भवन की आवश्यकता जताई है। वजह है 2026 में बढ़ने वाली सांसदों की संभावित संख्या लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि आज संसद में कामकाज पूरी तरह ठप है और संसद आए दिन हंगामे की भेंट चढ़ती रहती है। सांसद सदन में बैठने की बजाय केन्द्रीय हाल में गप्प मारते नजर आते हैं। तब क्यों सांसदों की संख्या बढ़े और क्यों नया भवन बने?
जब कोरम ही पूरा नहीं होता
यह बहुत ही अनुपयोगी और भावनाओं को आहत करने वाला सुझाव है। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन संसद के लिए नई नहीं है। वे बहुत लंबे समय से संसद की सम्मानीय सदस्य रही हैं। उन्हें सदन की बैठकों में रहने का लंबा अनुभव है। वे संसद के इतिहास और उसकी गरिमा से पूरी तरह से वाकिफ भी है, इसके बावजूद उनकी ओर से ऐसे सुझाव का आना, मन को चोट पहुंचाने वाला है। उनसे तो ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि केन्द्रीय हाल के रूप में विशाल भवन सिर्फ गप्प मारने के अलावा कुछ काम नहीं आ रहा।
पहली और वर्तमान लोकसभा में अंतर
संसद भवन का शिलान्यास 12 फरवरी 1921 को ड्यूक आफ कनाट ने किया था। इस महती काम को अंजाम देने में छह साल का लंबा समय लगा। इसका उद्धाटन तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने 18 जनवरी 1927 को किया था। संसद भवन के निर्माण कार्य में कुल 83 लाख रुपए की लागत आई। प्रसिध्द वासतुविद लुटियंस ने भवन का डिजाइन तैयार किया था। खंभो तथा गोलाकार बरामदों से निर्मित यह पुर्तगाली स्थापत्यकला का अद्भुत नमूना है। सर हर्बर्ट बेकर के निरीक्षण में निर्माण कार्य संपन्न हुआ। प्राचीन भारतीय स्मारकों की तरह दीवारों तथा खिड़कियों पर छज्जों का इस्तेमाल किया गया है।
संसद भवन में तीन भाग है लोकसभा, राज्यसभा और केन्द्रीय हॉल। लोकसभा कक्ष अर्धवृताकार है और करीब 4800 वर्ग फीट में फैला हुआ है। सर रिचर्ड बेकार ने वासतुकला का सुंदर नमूना पेश करते हुए काष्ठ से सदन की दीवारों तथा सीटों का डिजाइन तैयार किया था। इस सदन में 550 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है। स्पीकर की कुर्सी के दाहिनी और सत्ता पक्ष के लोग बैठते है और बांयी ओर विपक्ष के लोग बैठते हैं। राज्य सभा को उच्च सदन कहा जाता है इसमें सदस्यों की संख्या 250 तक है। यह स्थायी सदन है।
पहली तीनों लोकसभा में औसत छह सौ बैठकें हुई थी और 3700 घंटे काम हुआ करता था। अब इसमें बहुत कमी आई है। 1956 में 151, 2009 में 54, 2012 में 74, 2013 में 63, 2014 में 66, 2015 में 72 बैठके हुई हैं। पहली और दूसरी लोकसभा में बजट पर औसतन 123 घंटे बहस हुई थी। अब यह घटकर औसत 39 घंटे रह गई है। 72 विधेयक औसतन पारित किए थे प्रथम लोकसभा में हर साल लेकिन 15वीं लोकसभा में एक साल में 40 विधेयक ही पारित हो पाए। 545 सदस्यों में से 30 सांसद ही औसतन उपस्थित रहते हैं लोकसभा में सदन की कार्यवाही के दौरान।
गैरहाजिर सांसदों की संसद
76 प्रतिशत उपस्थिति रही 15वीं लोकसभा में सांसदों की। 22 सांसद तो ऐसे है जो आधी बैठकों में भी शामिल नहीं हुए। शेष 95 सांसद ऐसे रहे जिसकी उपस्थिति 50-75 फीसदी के बीच रही। राज्यसभा में कुछ दिन पहले समाप्त हुए शीतकालीन सत्र में 20 बैठकें हुई। इस दौरान 59 घंटों तक सदन चला पर विपक्ष हंगामे पर उतारू रहा जिसके चलते 47 घंटों का कीमती वक्त जाया हो गया। केवल सात विधेयको को मंजूरी दी गई। छह पर चर्चा ही नहीं हुई। 25 प्राइवेट मेम्बर्स बिल पेश किए गए पर एक भी पारित नहीं हो सका।
ब्रिटेन की संसद को ही लीजिए। कई सौ वर्षों से उसी इमारत में संसदीय कामकाज होता है और हाल खचाखच भरा रहता है। वहां के सांसद अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझते हैं और पूरे दायित्व के साथ संसद की गतिविधियों में हिस्सा लेते है। सवाल कामकाज व भवन की ऐतिहासिकता से जुड़ा है। ऐतिहासिक स्थान का कोई विकल्प नहीं होता। हमारे संसद भवन की ऐतिहासिकता है, उसके साथ भावनाएं जुड़ी है। ऐसे में उसे बदलने की बात सोचना भावनाओं से खिलवाड़ करना, इतिहास से छेड़छाड़ करना और संसद की गरिमा को आहत करने जैसा है। यह तो संसदीय प्रक्रिया या संसदीय लोकतंत्र को बदलने जैसी सोच लगती है।
नए संसद भवन की चर्चा होने के साथ ही इस बात पर मंथन होना चाहिए कि निचले स्तर पर सत्ता का विकेन्द्रीकरण कैसे किया जाए। पंचायत राज के माध्यम से जो विकेन्द्रीकरण का प्रयास हुआ, वह भी काफी पुराना हो गया। पंचायते खुद अपने ही फैसले नहीं कर पा रही। नए निर्वाचन क्षेत्र बने, तब भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि पिछड़े व उपेक्षित इलाकों को समुचित प्रतिनिधित्व मिल पाए।