
'किस्मत' चमकी और अशोक कुमार बन गये सितारे
साल सन् 1935 के किसी दिन की है। 'बॉम्बे' टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने अभिनेता नजमुल हसन को खफा...
साल सन् 1935 के किसी दिन की है। 'बॉम्बे' टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने अभिनेता नजमुल हसन को खफा होकर निर्माणाधीन फिल्म 'जीवन नैया' से निकाल दिया। नए नायक की तलाश में हफ्तों गुजर जाने के बाद एकाएक उनकी पत्नी देविका रानी की नजर कंपनी में कार्यरत एक युवक कुमुद गांगुली पर पड़ी। उन्होंने फौरन उसे नायक बनाने का फैसला ले लिया।
देविका रानी की पराव
मालकिन का फरमान सुनकर कुमुद सकपका गया। वह तो फिल्म निर्देशक बनने की कोशिश में था। अभिनेता बनने की कल्पना तो उसने ख्वाब में भी नहीं की थी। अभिनय से पीछा छुड़ाने की कोशिश में उसने सिर के बाल भी कटा लिए पर फिल्म निर्देशक प्रेंज आस्टिन के विरोध के बावजूद यह निर्णय बदला नहीं गया। देविका रानी ने उसको नया नाम दिया- अशोक कुमार, जो ताउम्र पहचान बन गया। फल्मी दुनिया 'दादा मुनि' के नाम से प्रतिष्ठित इस अभिनेता के पिता कुंजीलाल गांगुली मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में वकालत करते थे। 13 अक्तूबर 1911 को भागलपुर (बिहार) स्थित अपने ननिहाल में जन्में अशोक कुमार ने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई खंडवा से की और बी.एस.सी. जबलपुर से। इसके बाद वे एल.एल.बी. करने कोलकाता भेज दिए गए। उनके पिता अपे बड़े बेटे को भारत का चीफ जस्टिस बना देखना चाहते थे पर वहां उसे फिल्में देखने का चस्का लग गया। और एक दिन पढ़ाई छोड़कर वह फिल्म निर्देशक बनने का सपना संजोए अपनी बहन सती के घर मुंबई जा पहुंचा। वहां 'बॉम्बे टॉकीज' में कार्यरत बहनोई शशिधर मुखर्जी ने अपने मालिक हिमांशु राय से सिफारिश कर उसे 'लैबोरेटरी असिस्टेट' की नौकरी दिलवा दी। इसके बाद वेअसिस्टेंट कैमरामैन, फिल्म एडीटर आदि की जिम्मेदारी भी निभाने लगे।
अशोक और देविका रानी की जोड़ी 'जन्मभूमि', 'इज्जत', 'सावित्री', 'निर्मला', 'बचन', 'अनजान' में भी पसंद की गई। इस बीच वे दूसरी नायिकाओं के साथ 'प्रेम कहानी', 'कंगन', 'बंधन', 'झूला' में भी नजर आए। पर उनकी किस्मत का सितारा बुलंद किया। 1943 में रिलीज 'किस्मत' ने। फिल्मी इतिहास की सर्वाधिक हिट फिल्मों में प्रमुख इस फिल्म में कोलकाता के 'राक्सी' सिनेमाघर में तीन साल आठ महीने लगी रही। 'एंटी हीरो' यानी बुराई में लिप्त नायक का ट्रेंड इसी फिल्म से शुरू हुआ। इसमें मध्यप्रदेश के ही बड़नगर वासी पंडित प्रदीप के लिखे गीतों में 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है।' दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है ने धूम मचा दी थी।
300 से अधिक फिल्म
अशोक कुमार ने कई गाने गाये जो श्रोताओं ने बेहद सराहे। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आशीर्वाद' (1968) में बांग्ला कवि हरेन्द्रनाथ चटर्जी का लिखा 'खंडवा-खंडवा/...छुक-छुक ट्रेन चली भाई ट्रेन चली' लोकप्रिय गीत साक्षरता मिशन के विज्ञापन में भी प्रभावशाली माना गया। इस फिल्म में जोगी ठाकुर की भूमिका निभाने के लिए दाढ़ी बढ़ाई, जबकि वे क्लीनशेव रहना पसंद करते थे। सुचित्र सेन के साथ बतौर नायक 'ममता' (1966) उनकी आखिरी फिल्म थी। हीरो की भूमिकाएं मिलने के बावजूद उन्होंने नई पीढ़ी के अभिनेताओं के लिए हीरो का सिंहासन त्यागकर स्वेच्छा से चरित्र भूमिकाएं स्वीकारीं। 1967 में उन्होंने 'नवकेतन' के बैनर तले बनी विजय आनंद की 'ज्वैलथीप' में खलनायक की भूमिका स्वीकारी थी। चरित्र अभिनेता के रूप में भी उनकी 'सत्यकाम', 'पूरब और पश्चिम', 'पाकीजा', 'प्रेम नगर', 'अनुरोध', 'खूबसूरत', 'मिस्टर इंडिया' आदि उल्लेखनीय है. 'चलती का नाम गाड़ी', 'विक्टोरिया नंबर 203', 'खट्टा मीठा', 'शौकीन' जैसी नकी कई फिल्म हास्य की सर्वश्रेष्ठ फिल्में मानी जाती हैं। बासु चटर्जी की छोटी-सी बात (1975) में रिटायर्ड कर्नल सिंह बनकर वे नायक (अमोल पालेकर ) को प्रेम करने के जो गुर बताते हैं, उसे अपनाकर सैकड़ों दूसरे युवक प्रेम विवाह करने में सफल रहे। 1988 में बनी मनोज कुमार की 'क्लर्क' अशोक कुमार की आखिरी फिल्मों में प्रमुख थी। दूरदर्शन के पहले 'सोप आपेरा', 'हम लोग' और 'दादा दादी की कहानी', 'बहादुरशाह जफर', भीम भवानी नामक धारावाहिकों में भी उनकी भूमिका अविस्मरणीय रही। तीन सौ से अधिक फिल्मों, जिनमें 64 से अधिक जुबली हिट रहीं, के अभिनेता अशोक कुमार को ढेरों सम्मान और अलंकरण मिले। 3 मई, 1913 को रिलीज भारत की पहली मूक कथा फिल्म 'राजा हरिशचन्द्र' के जनक ढूंढीराज गोविंद फाल्के की स्मृति में 1959 में स्थापित 'दादा साहेब फालके पुरस्कार' उन्हें 1988 में दिया गया। इसके अलावा 1959 में 'संगीत नाटक अकादमी' पुरस्कारष 'राखी' (1962), 'अफसाना' (1966) और 'आशीर्वाद' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता को फिल्म फेयर अवार्ड मिले। भारत सरकार ने अशोक कुमार को 1966 में पद्मश्री से भी नवाजा। देयर इज नो लास्ट वर्ड इन एक्टिंग कहने वाले अशोक कुमार कहा करते थे कि मेरी आखिरी फिल्म कभी नहीं आएगी, क्योंकि मनुष्य के जीवन में उसके सांस ही अंतिम हो सकती है। कई बरस पहले वह अभिनेता भले ही दुनिया छोड़ गया, पर उन जैसे बिरले कलाकार का नाम कभी भुलाया नहीं जाएगा। युवाओं को उनकी यह सीख हमेशा याद रखनी चाहिए कि 'बरखुरदार, सीना तानकर खड़े होना सीको वरना बुढ़ापे में औंधे मुंह गिरोगे।'