
आध्यात्मिक जड़ता को समझने-समझाने की कोशिश
कठनाई यह है कि स्वतंत्र चिन्तन, चाहे वह कितना भी प्रमाणपुष्ट हो, हमें रास नहीं आता। अध्यात्म के साथ...
कठनाई यह है कि स्वतंत्र चिन्तन, चाहे वह कितना भी प्रमाणपुष्ट हो, हमें रास नहीं आता। अध्यात्म के साथ तो और भी कठिनाई है। अध्यात्म को हम मजहब की संकीर्णताओं से जकड़ देते हैं। नतीजतन हम ऐसे रूढ़िग्रस्त हो जाते हैं कि जो हम सोचते करते हैं उससे इतर हर सोच हमें शत्रुतापूर्ण लगती है। आखिर तसलीमा नसरीन देश-बदर क्यों हैं और भारत में भी वे अस्थायी तौर पर दिन काट रही है। तसलीमा की 'लज्जा' से हम लज्जाग्रस्त होते हैं तो लेखन का जवाब लिखकर, विचारों का जवाब प्रतिविचार से दिया जाना चाहिए। लेकिन जब रूढ़ि बहुमूल्य हो तो जो हमने सोचा वह अंतिम और आखिरी है। भारत की परम्परा तो जगद्गुरु शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच भी शास्त्रार्थ की रही है, किन्तु वे दिन हवा हुए। राजनीतिक आग्रहों ने हमारी जड़ता को कुछ और बढ़ावा ही दिया है। अस्तु। हिन्दू धर्म की उदारता का आलम यह है कि आप सिर्फ यह कहें कि आप हिन्दू हैं, तो हिन्दू हैं। आप वेदपूजक हों या वेद-निन्दक, आप श्रीमद्भगवद् गीता को विश्व की श्रेष्ठ-श्रेण्य दिशाबोधक कृति मानते हों या उसे भी धार्मिक ग्रंथ कहते हों, आप सामिष हों या निरामिष, आप संतोचित शुचिता के आग्रही हों या तामसी मद्यपायी जीवन-शैली के आग्रही, आप शैव हों कि शाक्त हों, आप वैष्णव हों या ऐसे हर खेमे से बाहर हों, आप यज्ञोपवीतधारी हों या उसे आपने घर की खूंटी से लटका रखा हो, आप अपने को हिन्दू कहते हैं तो हिन्दू हैं। ऐसा इसलिए कि हिन्दू चिन्तन व्यक्ति-स्वातंत्र्य का पक्षधर है। इसीलिए किसी को हिन्दू बनाया नहीं जाता। इधर कथित 'घर-वापसी' को लेकर विवाद है। यह मानने में शायद ही किसी को आपत्ति हो कि भारत में इस्लाम या ईसाई धर्म को मानने वाले लोग इस धर्म में अंतरित हुए हैं। यदि वे फिर अपने मूल धर्म में लौटना चाहें, निश्चिय ही बिना किसी दबाव के स्वेच्चा से तो विवाद की गुंजाइश बनती तो नहीं है। हिन्दुओं को इतनी आजादी तो मिलनी ही चाहिए कि वे यह बताएं कि स्वधर्मे निधनं श्रेय: पर धर्मो भयावह:। लेकिन स्थिति यह बना दी गई है कि ऐसा कहना बोलना, समझना-समझाना, अध्यात्म के संदर्भ में सत्यान्वेषण करना 'तलवार की धार में धावनो है!' शंकर शरण एवं विजय कुमार ने इस पक्ष पर सतर्क दृष्टि डालते हुए 'घर-वापसी' पर जो विचार किया है वह इतना प्रमाणपुष्ट है कि विवाद की गुंजाइश नहीं है, किन्तु जैसा निवेदन किया गया, हमारी रूढ़िवादिता के कारण ऐसा करना साहस का काम है और इस सात्विक साहस के लिए लेखक द्वय की प्रशंसा की जानी चाहिए। मै मात्र यह निवेदन करना चाहूंगा कि इस पुस्तक को आप आद्योपांत पढ़ें। यह आपको दृष्टिसम्पन्न बनाएगी। और यदि आपको लगे कि ये प्रमाण विश्वास्य नहीं हैं तो आप स्वतंत्र चिन्तन करके हुए बताएं कि लेखक-द्वय गलत कहां हैं। इतनी गंभीर किताब की सतही समीक्षा नहीं की जा सकती, यह उचित भी नहीं होगा। इस श्रमसाध्य-चिन्तनसाध्य प्रमाणपुष्ट कृति को एक बार पढ़ने का पुन:-पुन: आमंत्रण ही उपलम् होगा।