
अति महत्वाकांक्षा एक मनोरोग
| | 2016-02-14T13:28:05+05:30
महत्वाकांक्षाओं का ज्वर जीवन को विषाक्त कर देता है। यह जीवन को कभी समाप्त न होने वाली अशांति एवं...
महत्वाकांक्षाओं का ज्वर जीवन को विषाक्त कर देता है। यह जीवन को कभी समाप्त न होने वाली अशांति एवं असंतोष की आग से झुलसता रहता है। यह एक ऐसी न बुझने वाली आग है, जो हमारे मन को कुरेदती रहती है, उसे जलाती रहती है और जलाकर उसे अनेकों घाव देती है और इसी वजह से महत्वाकांक्षी मन न तो शांत हो पाता है और न स्थिर। जो महत्वाकांक्षाओं के ज्वर से उद्वेलित हैं, शांति का संगीत और आत्मा का आनंद भला उनके भाग्य में कहां?वे तो स्वयं में ही नहीं होते है और शांति का संगीत एवं आत्मा का आनंद तो स्वयं में होने के ही फल हैं।
बुध्दि, विवेक एवं विचार किए बिना यह एक ऐसा भावावेश है, जिसे केवल यह प्राप्त करना चाहता है, बस और कुछ नहीं। अतिमहत्वाकांक्षा स्वयं में एक मनोरोग है और अनेकों स्वयं में एक मनोरोग है और अनेकों मनोरोगों का एक लक्षण भी है। ऐसे लोग दिखने में ऊपर से कितने भी शांत भले ही लगते हों, परन्तु अंदर से वे वे धधकती आग की अंगोठी के समान होते हैं, जिसमें से इच्छाओं और कामनाओं की लपटें अनियंत्रित होकर उटती रहती हैं। अति-महत्वाकांक्षा के ज्वर से ग्रसित विद्यार्थी किसी भी कीमत पर स्वयं को सर्वोच्च एवं सर्वोत्तम घोषित करने में कोई कोर कसर नहींछोड़ते, अपनी कक्षा में प्रथम आने के लिए वे मेहनत तो करते हैं, परन्तु उसके अलावा छल, छद्म एवं दुष्चा का ऐसा नाता-बाना भी बुनते हैं कि अन्य छात्र उनसे पिछड़ जाएं।