
अच्छी फिल्मों का अभाव क्यों?
| | 2015-12-13T13:35:33+05:30
नीरज अशेषअंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब हमारी फिल्मों को महोत्सव में सम्मिलित होना होता है तो हमारी सरकार...
नीरज अशेष
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब हमारी फिल्मों को महोत्सव में सम्मिलित होना होता है तो हमारी सरकार के सामने जा बड़ी समस्या होती है और वह यह कि इतनी ढेर सारी फिल्मों में से किन-किन फिल्मों को किन-किन अंतरराष्ट्रीय महोत्सवों में भेजा जाए? कुछ ही ऐसी फिल्में सामने होती है, जिन्हें कई कई फिल्म महोत्सवों में सम्मिलित करना पड़ता है। उनमें से भी जिन फिल्मों पर भारतीय फिल्म होने का ठप्पा लगाकर भारत से बाहर भेजा जाता है, उनमें भी भारतीयता नाम की वस्तु नहीं होती। इस स्थिति के जिम्मेदार कौन हैं? निस्संदेह हमारे फिल्म निर्माता, जो भारतीय संस्कृति से कटकर फिल्म बनाते हैं।
निम्न स्तर की उत्तेजक फिल्में देख-देखकर हिन्दी फिल्म दर्शक की स्थिति उस शराबी जैसी हो चुकी है जो रोज-रोज शराब पीकर इतने शराब भक्त हो गए हैं कि अमृत को भी स्वीकार नहीं करते। यही कारण है कि अच्छी कृतियों पर जिन निर्माता-निर्देशकों ने फिल्में बनाई है उनमें से अधिकांश फिल्मों को बाक्स आफिस पर असफल फिल्म कहा जाता है। परन्तु उसका कारण साहित्य की कमजोरियां नहीं वरन् पटकथा लेखक की कमजोर क्षमता होती है फिर वह फिल्म चाहे मुंशी प्रेमचंद की गोदान हो या गबन, विश्व प्रसिध्द निर्देशक सत्यजीत रॉय द्वारा प्रस्तुत शतरंज के खिलाड़ी हो या कमलेश्वर की बदनाम बस्ती हो अथवा जैनेन्द्र कुमार का त्यागपत्र हो। गोदान, गबन, बदनाम बस्ती, त्यागपत्र आदि नामी कृतियां आज भी जीवित हैं और पाठकों को आज तक प्रभावित करती हैं, फिर इन पर बनी फिल्में क्यों नहीं चली। इसके विपरीत विभूति भूषण बंधोपाध्याय के उपन्यास पथेर पांचाली पर बंगाल के ही निर्देशक सत्यजीत रॉय ने तीन फिल्में बनाई और सफल भी रहीं।
कारण स्पष्ट है कि हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं ने जनता की रूचि बिगाड़ दी है। वे स्वतंत्र विचार प्रस्तुत नहीं करते ये वही फिल्म निर्माता है जो मानसिक रूप से दिवालिया हो चुके हैं, जो मात्र कलाकारों के ऊपर निर्भर रहते हैं। ऐसे निर्माता केवल फिल्मों का गेटअप बनाते हैं और फिल्म को महज घटिया मनोरंजन का माध्यम मानते हैं। उनका अपनी कोई सोच नहीं होती। उन्हें सिर्फ ऐसी कहानी की आवश्यकता होती है, जिसके आसपास की कोई फिल्म सफल हो चुकी थी।
कुछ प्रयोगवादी निर्माता निर्देशकों ने छोटी फिल्में बनाना आरंभ किया किन्तु ये इतने प्रयोगवादी सिध्द हुए कि सामान्य दर्शक के मानसिक स्तर से बहुत ऊपर की चीज साबित हुए। ऐसी फिल्मों को समानांतर फिल्में कहा गया। यह आंदोलन की भी बुरी तरह भ्रमित होकर रह गया।
निर्माता राजकपूर की जागते रहो, उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है, परन्तु उनके दृष्टिकोण से सभी फिल्मों में वह सबसे विफल थी। स्वर्गीय गुरूदत्त की कागज के फूल तथा साहब बीबी और गुलाम, ऋषिकेश मुखर्जी की मुसाफिर और अनुराधा, विमल राय की बंदिनी तथा परख, श्रेष्ठ पर असफल फिल्में प्रमाणित हुई। बीआर चोपड़ा की सबसे अच्छी फिल्म धर्मपुत्र थी, लेकिन इसने भी असफलतका का मुंह देखा। सुनील दत्त की यादें स्वर्गीय मोतीलाल को ऊंचे लोग शैलेन्द्र की तीसरी कसम, श्याम बेनेगल की निशांत और प्राणलाल मेहता की किनारा और किताब गुलजार की आंधी आदि निस्संदेह श्रेष्ठ फिल्मे थीं, किन्तु तब आर्थिक दृष्टि से विफल रहीं। कारण शायद यह रहा कि इन सभी फिल्मों के निर्माता वितरक नहीं थे, अन्यथा यह फिल्में शुध्द घाटे की फिल्में न कहलाती। अगर जल्द पैसा न कमा पाई होती तो भी लांग रन में देर से पैसा कवर करती। निर्माता ताराचंद बड़जात्या को अपनी किसी भी फिल्म से घाटा नहीं रहा।
यहां उल्लेखनीय है कि कथावस्तु स्वयं स्टार बन गई और स्टार स्वयं निर्देशक। यदि फिल्म के कथानक में जीवन की सच्चाई छलकती है, उसमें नाटकीय संघर्ष है और उसके पात्रों में दर्शकों को कहीं न कहीं अपनी छवि मिलती है तो ऐसी हालत में दर्शक आनन्-फानन में लीक से हटकर बनी फिल्म स्वीकार कर लेते हैं। दर्शकों ने दुनिया न माने,अमृत मंथन, अछूत कन्या, देवदास जैसी कठिन कलात्मक फिल्मों को सिरआंखों पर उठाया भी है। इसके अतिरिक्त जागृति, हकीकत, गाइड, मदर, इंडिया, रजनीगंधा, घरौंदा, छोटी सी बात, अंकुर इत्यादि बड़े छोटे बजटों की फिलमों को दर्शकों की ओर से प्रोत्साहन भी मिला है। अब वह युग आ रहा है जब फिल्मों में जीवित चरित्र को जीने के लिए उन्हें एक जीवन से जुड़ा हुआ, भारतीय समस्याओं से ओत-प्रोत स्वाभाविक चरित्र चाहिए। ऐसे चरित्र केवल साहित्यिक कृतियों में ही मिल सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि साहित्यिक कृतियों को सही परिवेश में प्रस्तुत किया जाए। उदाहरण के लिए बासु चटर्जी ने शरत की कृतियों को उसी परिवेश में रखकर प्रभावपूर्ण बनाया है। साहित्यकार की आत्मा को और कृति केपरिवेश को बदलने में एक खास संदर्भ ही सार्थक लगते हैं। इनमें एक जीवन शैली की टूटन की विसंगतियां हैं जो उनके नारी पात्रों को अनोखी गरिमा प्रदान करती है। उन कथा स्थितियों को किसी दूसरे सामाजिक संदर्भ में स्थापित नहीं किया जा सकता।
निर्माता-निर्देशक धन की लोलुपता से थोड़ा निकलकर दर्शकों के स्तर को सुधार और भारतीय फिल्मों के उच्च स्तर तक जाएं, तभी हम पूर्ण भारतीयता को छूटी फिल्मों के द्वारा विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकेंगे और नई पीढ़ी को दिशा देकर सार्थकता ला सकेंगे।